وَكَذٰلِكَ بَعَثناهُم لِيَتَساءَلوا بَينَهُم ۚ قالَ قائِلٌ مِنهُم كَم لَبِثتُم ۖ قالوا لَبِثنا يَومًا أَو بَعضَ يَومٍ ۚ قالوا رَبُّكُم أَعلَمُ بِما لَبِثتُم فَابعَثوا أَحَدَكُم بِوَرِقِكُم هٰذِهِ إِلَى المَدينَةِ فَليَنظُر أَيُّها أَزكىٰ طَعامًا فَليَأتِكُم بِرِزقٍ مِنهُ وَليَتَلَطَّف وَلا يُشعِرَنَّ بِكُم أَحَدًا
फ़ारूक़ ख़ान & नदवी
और (जिस तरह अपनी कुदरत से उनको सुलाया) उसी तरह (अपनी कुदरत से) उनको (जगा) उठाया ताकि आपस में कुछ पूछ गछ करें (ग़रज़) उनमें एक बोलने वाला बोल उठा कि (भई आख़िर इस ग़ार में) तुम कितनी मुद्दत ठहरे कहने लगे (अरे ठहरे क्या बस) एक दिन से भी कम उसके बाद कहने लगे कि जितनी देर तुम ग़ार में ठहरे उसको तुम्हारे परवरदिगार ही (कुछ तुम से) बेहतर जानता है (अच्छा) तो अब अपने में से किसी को अपना ये रुपया देकर शहर की तरफ भेजो तो वह (जाकर) देखभाल ले कि वहाँ कौन सा खाना बहुत अच्छा है फिर उसमें से (ज़रुरत भर) खाना तुम्हारे वास्ते ले आए और उसे चाहिए कि वह आहिस्ता चुपके से आ जाए और किसी को तुम्हारी ख़बर न होने दे